Happy Birthday to Sachchidananda Hirananda Vatsyayan 'Agyeya'
Today is famous Hindi writer Agyeya's 104th Birth Anniversary, and so the post will be in Hindi.
कुछ दिनों पहले सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' के लेखों का संग्रहण करने वाली 'लेखक का दायित्व' नामक पुस्तक मिली। मैं अज्ञेय का लघु उपन्यास 'अपने अपने अजनबी' पहले पढ़ चुका था, पर कवि या आलोचक के रूप में उनके विचारों से पहले भेंट न हुई थी। इस पुस्तक में उनके काव्य आलोचना के निबंध हैं, साथ ही संपादक के रूप में संग्रहों हेतु लिखी भूमिकाओं को भी छापा गया है।
अज्ञेय 'नयी कविता' के प्रायोजक रहे, एक ऐसा गुट जिसने 'छायावादी' और 'प्रगतिशील' काव्य से आगे बढ़ कुछ रचने की मुहीम छेड़ी। इसी के अंतर्गत उन्होंने 'तार सप्तक' नामक एक पुस्तक का संपादन किया, जिसमे १९४३ के सात प्रतिभाशाली कवियों की कृतियों का चयन छपा। अगले कई सालों में अज्ञेय ने तीन बार और ऐसे सप्तकों का संपादन किया। इन्ही की जो भूमिकाएं लिखी वह 'लेखक का दायित्व' में पढ़ी जा सकती हैं।
इन भूमिकाओं को पढ़ हिंदी काव्य के एक ऐतिहासिक युग के बारे में बोध होता है। अज्ञेय स्पष्ट शब्दों में कविता के मूल प्रश्न पहचानते हैं तथा उन पर विचार भी करते हैं। चौथे सप्तक (१९७९) की भूमिका, जिसका शीर्षक 'काव्य का सत्य और कवि का वक्तव्य' है, अपने आप में एक पूर्ण निबंध भी है। नीचे उसी का कुछ हिस्सा मैंने लिख दिया है:
कवि जहाँ मैं के रूप में पाठक अथवा श्रोता के समक्ष होकर अपना वक्तव्य देता है वहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह वक्तव्य या उस में प्रकट किये गए भाव अथवा विचार एक सार्वभौम सत्ता पा चुके हैं। दूसरे शब्दों में यह सिद्ध नहीं हुआ है कि वे बहुजन-संवेद्य हो गए हैं, सम्प्रेष्य हो गए हैं। उन्हीं को जब हम दूसरे चरित्र के माध्यम से -- प्रस्तुत करते हैं, तब इस कसौटी पर हम अपनी परीक्षा करवा चुके होते हैं।
तो एक बार अपनी बात मैं दोहरा दूँ। आज की कविता का बहुत बड़ा और शायद सबसे बड़ा दोष यही है कि उस पर एक 'मैं' छा गया है, वह भी एक अपरीक्षित और अविसर्जित मैं। आज की कविता बहुत बोलती है, जबकि कविता का काम बोलना है ही नहीं।
कुछ दिनों पहले सच्चिदानन्द हीरानन्द वात्स्यायन 'अज्ञेय' के लेखों का संग्रहण करने वाली 'लेखक का दायित्व' नामक पुस्तक मिली। मैं अज्ञेय का लघु उपन्यास 'अपने अपने अजनबी' पहले पढ़ चुका था, पर कवि या आलोचक के रूप में उनके विचारों से पहले भेंट न हुई थी। इस पुस्तक में उनके काव्य आलोचना के निबंध हैं, साथ ही संपादक के रूप में संग्रहों हेतु लिखी भूमिकाओं को भी छापा गया है।
अज्ञेय 'नयी कविता' के प्रायोजक रहे, एक ऐसा गुट जिसने 'छायावादी' और 'प्रगतिशील' काव्य से आगे बढ़ कुछ रचने की मुहीम छेड़ी। इसी के अंतर्गत उन्होंने 'तार सप्तक' नामक एक पुस्तक का संपादन किया, जिसमे १९४३ के सात प्रतिभाशाली कवियों की कृतियों का चयन छपा। अगले कई सालों में अज्ञेय ने तीन बार और ऐसे सप्तकों का संपादन किया। इन्ही की जो भूमिकाएं लिखी वह 'लेखक का दायित्व' में पढ़ी जा सकती हैं।
इन भूमिकाओं को पढ़ हिंदी काव्य के एक ऐतिहासिक युग के बारे में बोध होता है। अज्ञेय स्पष्ट शब्दों में कविता के मूल प्रश्न पहचानते हैं तथा उन पर विचार भी करते हैं। चौथे सप्तक (१९७९) की भूमिका, जिसका शीर्षक 'काव्य का सत्य और कवि का वक्तव्य' है, अपने आप में एक पूर्ण निबंध भी है। नीचे उसी का कुछ हिस्सा मैंने लिख दिया है:
कवि जहाँ मैं के रूप में पाठक अथवा श्रोता के समक्ष होकर अपना वक्तव्य देता है वहाँ इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि वह वक्तव्य या उस में प्रकट किये गए भाव अथवा विचार एक सार्वभौम सत्ता पा चुके हैं। दूसरे शब्दों में यह सिद्ध नहीं हुआ है कि वे बहुजन-संवेद्य हो गए हैं, सम्प्रेष्य हो गए हैं। उन्हीं को जब हम दूसरे चरित्र के माध्यम से -- प्रस्तुत करते हैं, तब इस कसौटी पर हम अपनी परीक्षा करवा चुके होते हैं।
तो एक बार अपनी बात मैं दोहरा दूँ। आज की कविता का बहुत बड़ा और शायद सबसे बड़ा दोष यही है कि उस पर एक 'मैं' छा गया है, वह भी एक अपरीक्षित और अविसर्जित मैं। आज की कविता बहुत बोलती है, जबकि कविता का काम बोलना है ही नहीं।
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